Sunday, 24 July 2016

425. मानस-पूजा और कैसे करें भगवान शिव की मानसपूजा शास्त्रों में पूजा को हजारगुना अधिक महत्वपूर्ण बनाने के लिए एक उपाय बतलाया गया है। वह उपाय है मानस-पूजा, जिसे पूजा से पहले करके फिर बाह्य वस्तुओं से पूजा करें अथवा सुविधानुसार बाद में भी की जा सकती है। मन: कल्पित यदि एक फूल भी चढ़ा दिया जाय, तो करोड़ों बाहरी फूल चढ़ाने के बराबर होता है। इसी प्रकार मानस-चंदन, धूप, दीप नैवेद्य भी भगवान को करोड़गुना अधिक संतोष दे सकेंगे। अत: मानस-पूजा बहुत अपेक्षित है। वस्तुत: भगवान को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं, वे तो भाव के भूखे हैं। संसार में ऐसे दिव्य पदार्थ उपलब्ध नहीं हैं, जिनसे परमेश्वर की पूजा की जा सके, इसलिए पुराणों में मानस-पूजा का विशेष महत्त्व माना गया है। मानस-पूजा में भक्त अपने इष्ट साम्बसदाशिव को सुधासिंधु से आप्लावित कैलास-शिखर पर कल्पवृक्षों से आवृत कदंब-वृक्षों से युक्त मुक्तामणिमण्डित भवन में चिन्तामणि निर्मित सिंहासन पर विराजमान कराता है। स्वर्गलोक की मंदाकिनी गंगा के जल से अपने आराध्य को स्नान कराता है, कामधेनु गौ के दुग्ध से पंचामृत का निर्माण करता है। वस्त्राभूषण भी दिव्य अलौकिक होते हैं। पृथ्वीरूपी गंध का अनुलेपन करता है। अपने आराध्य के लिए कुबेर की पुष्पवाटिका से स्वर्णकमल पुष्पों का चयन करता है. भावना से वायुरूपी धूप, अग्निरूपी दीपक तथा अमृतरूपी नैवेद्य भगवान को अर्पण करने की विधि है। इसके साथ ही त्रिलोक की संपूर्ण वस्तु, सभी उपचार सच्चिदानंदघन परमात्मप्रभु के चरणों में भावना से भक्त अर्पण करता है। यह है मानस-पूजा का स्वरूप। इसकी एक संक्षिप्त विधि पुराणों में वर्णित है। जो नीचे लिखी जा रही है - १-ॐ लं पृथिव्यात्मकं गन्धं परिकल्पयामि। (प्रभो! मैं पृथ्वीरूप गंध (चंदन) आपको अर्पित करता हूं।) २-ॐ हं आकाशात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि। (प्रभो! मैं आकाशरूप पुष्प आपको अर्पित करता हूं।) ३-ॐ यं वाय्वात्मकं धूपं परिकल्पयामि। (प्रभो! मैं वायुदेव के रूप में धूप आपको प्रदान करता हूं।) ४-ॐ रं वह्न्यात्मकं दीपं दर्शयामि। (प्रभो! अग्निदेव के रूप में दीपक आपको प्रदान करता हूं।) ५- ॐ सौं सर्वात्मकं सर्वोपचारं समर्पयामि। (प्रभो! मैं सर्वात्मा के रूप में संसार के सभी उपचारों को आपके चरणों में समर्पित करता हूं।) इन मंत्रों से भावनापूर्वक मानस-पूजा की जा सकती है। मानस-पूजा से चित्त एकाग्र और सरस हो जाता है, इससे बाह्य पूजा में भी रस मिलने लगता है। यद्यपि इसका प्रचार कम है, तथापि इसे अवश्य अपनाना चाहिए। यहां पाठकों के लाभार्थ भगवान शंकराचार्यविरचित ‘मानस-पूजास्तोत्र’ मूल तथा हिंदी अनुवाद के साथ दिया जा रहा है - शिवमानसपूजा रत्नै: कल्पितमासनं हिमजलै: स्नानं च दिव्याम्बरं नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदाङ्कितं चन्दनम्। जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम्।।१।। हे दयानिधे! हे पशुपते! हेदेव! यह रत्ननिर्मित सिंहासन, शीतल जल से स्नान, नाना रत्नावलिविभूषित दिव्य वस्त्र, कस्तूरिकागंधसमन्वित चंदन, जुही, चंपा और बिल्वपत्र से रचित पुष्पांजलि तथा धूप और दीप यह सब मानसिक (पूजोपहार) ग्रहण कीजिए। सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम्। शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु।।२।। मैंने नवीन रत्नखण्डों से रचित सुवर्णपात्र में घृतयुक्त खीर, दूध और दधि सहित पांच प्रकार का व्यंजन, कदलीफल, शर्बत, अनेकों शाक, कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मीठा जल और तांबूल - ये सब मन के द्वारा ही बनाकर प्रस्तुत किए हैं, प्रभो! कृपया इन्हें स्वीकार कीजिए। छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं वीणाभेरिमृदङ्गकाहलकला गीतं च नृत्यं तथा। साष्टाङ्गं प्रणति: स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो।।३।। छत्र, दो चंवर, पंखा, निर्मल दर्पण, वीणा, भेरी, मृदंग, दुन्दुभी के वाद्य, गान, और नृत्य, साष्टाङ्ग प्रणाम, नानाविध स्तुति-ये सब मैं संकल्प से ही आपको समर्पण करता हूं, प्रभो! मेरी यह पूजा ग्रहण कीजिए। आत्मा त्वं गिरिजा मति: सहचरा: प्राणा: शरीरं गृहं पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थिति:। सञ्चार: पदयो: प्रदक्षिणविधि: स्तोत्राणि सर्वा गिरो यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्।।४।। हे शंभो! मेरी आत्मा आप हैं, बुद्धि पार्वतीजी हैं, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपका मंदिर है, संपूर्ण विषय-भोग की रचना आपकी पूजा है, निद्रा समाधि है, मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा संपूर्ण शब्द आपके स्तोत्र हैं, इस प्रकार मैं जो-जो कर्म करता हूं, वह सब आपकी आराधना ही है। करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं पापराधम्। विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व जय जय करुणानिधे श्री महादेव शम्भो।।५।। प्रभो! मैंने हाथ, पैर, वाणी, शरीर, कर्म, कर्ण, नेत्र, अथवा मन से जो भी अपराध किए हों, वे विहित हों अथवा अविहित, उन सबको आप क्षमा कीजिए। हे करुणासागर श्री महादेव शंकर- आपकी जय हो।


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